Saturday, September 4, 2010

वो बहुत दूर था, और स्टेशन से ट्रेन की सिटी सुने दे रही थी.

 काश में जल्दी गाँव से निकल जाता, तो ये आखरी ट्रेन मिल जाती. अब शहर जाने के लिये कोई सवारी भी नहीं सुबह तक. एक तो   सर्द हवाएं रास्ते को और विषम बना रही हैं और ये पुग्दंदियाँ पैरों के नीचे अपने आप को बेदम सा महसूस कर रही थीं.

वरुण तेज़ कदमो से बगल में पोटली दबाये भागता हुआ स्टेशन की ओर जा रहा था.उसे एस बात का एहसास था की रात में स्टेशन पर रहना बहुत मुस्किल है. दूर शाम भी ढलने के कगार पैर थी

वरुण  डरा हुआ था क्यूँकी उसकी पोटली में रुपये थें , उसने आज गाँव की अपनी साडी जमीन बेच दी थी और सहर में ज़मीन लेने जा रहा था... शहर में उसकी नौकरी के दो साल हो गएँ थें